जो समझे वो खिलाड़ी, ना समझे वो अनाड़ी 

लोकसभा चुनाव के बाद अब नजरें गढ़ी परिणामों पर, हालात, प्रतिशतता,जातीय गणित और पैठ रासूखात के बूते पर कयासों की किलकारी फिलवक्त गूंज रही है। वो बात और है कि चुनाव से पूर्व प्रत्याशी धार्मिक व सामाजिक आयोजन में काफिला सहित दिखें मगर अब हो परिदृश्य नहीं है। गढ किले भेद की नीतियां चुनाव के साथ ही चल बसी, अब जेहन में घबराहट की बारी है। आंखों में पिछले दो दशक का मंजर भी कौंध रहा है। आखिर ऊंट किस करवट बैठता है। हमारा क्षेत्र एक बार फिर सियासी अफसाना लिखने को आतुर है। इधर क्षेत्रों में समस्याओं का जरख ज्यों का त्यों खड़ा है। वादे-शर्तें, आश्वासन की झड़ी तो हालांकि सैकड़ों बार और पार हो गईं। मगर अब तक तो हकीकत कुछ और ही बैठती नजर आई है। 

आखिर इस दर्द की दवा कहां 

जन समस्याओं का पिटारा खोलें तो पूरा जिला ही इसकी आगोश में है, सिरोही शहर का हाल जानें मन तकलीफ देह हो जाता है। हाल ए सडक़, पिछले छत्तीस माह कोई कोढ़ में खाज से कम नहीं गए। सडक़ें उधड़ती रही, बनती रही, फिर उधड़ी फिर बनीं, किसको क्या पड़ी जो बोले, बेचारी पब्लिक जो हाल रहा उसी में चलते रहे। रेस्पेरेबल डस्ट जो कई जटिल बीमारियों की संवाहक है, इन दिनों खुदी सडक़ों के बीच हर किसी के सांसों में चढ़ रही है। सूर्य अस्त, मजदूर मस्त की तर्ज पर सभी पालना करवाने वाले अपनी शैली में ही मस्त है। दुख देखे तो बेचारी जनता। 

ये कैसा नियम, कैसी परम्परा 

हम बात कर रहे हैं यातायात नियमों की पालना करवाने वाले हाथों की। अक्सर देखा जाता है कि शहरी सीमा के भीतर गजब की जांच होती है, आदेश से दस दिन पूर्व ही हेलमेट विक्रेता यहां पहुंच जाते है। जांच में नजरें बेचारे ग्रामीणों पर, आखिर क्यूं। लंबा सफर कर खरीदारी को आते है, समझाइश की बजाय सीधे हाथ में चालान। जबकि शहरी सीमा में दुर्घटनाओं का ग्राफ भी नगण्य सा है। यह शहर हाइवे और बड़े संपर्क मार्ग से जुड़ा है, जहां सुरक्षा प्रहरियों की ना मौजूदगी और वाहनों की गतिसीमा व ओवरटेक की अनदेखी कई सवाल खड़े करती है। जबकि इन सडक़ों पर दुर्घटनाओं का ग्राफ भी अधिक है। हारर वैली नाम से विख्यात बाहरीघाटा पर हालांकि एक बार दुर्घटनाओं की रोकथाम के लिए ठोस नीति शुरु की थीं, लेकिन एसपी बदलने के बाद वो भी कागजों में सिमट गईं। उसके बाद आज तक दुर्घटनाओं की रोकथाम की कागजी ठोस नीति हकीकत में नहीं बैठ पाई।